April 25, 2025

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उसके नाम में थे दो ‘एल’ – वोह सिखाता था उर्दू ज़बाँ सिखाते सिखाते

उर्दू पढ़ाते थे। उर्दू जीते थे। उर्दू ही खाते, पीते, सोते होंगे। सपने भी उर्दू होंगे।

“दो ‘एल’ क्यों डालते हो आप अपने नाम में? प्रो एच के लाल – ‘एल’-‘ए’-‘एल’-‘एल’?”
मैंने एक बार सरसरी तौर पर पूछ लिया उनसे।

“यह बताने के लिए कि मेरे जैसा और कोई नहीं। एक ‘एल’ तो सारे ‘लाल’ डाल लेते हैं,” उन्होंने कहा, और फिर ज़ोरदार ठहाका लगाया।

वह मेरे अध्यापक थे, उम्र में बहुत अग्रज। दो ‘एल’ लगाने के पीछे उनके बताये कारण से मैं प्रभावित नहीं था, फिर भी शिष्टाचार के नाते मैं भी उनके ठहाके का साथ देने के लिए थोड़ा सा हस दिया। जैसे ही मैं चुप हुआ, शरारती चमकती आँखों से मुझे देखते हुए बोले – “देखो, कितना चीप जोक किया है मैंने! तीन ‘एल’ लगा लेता तो मेरी कौन सी टांग तोड़ लेनी थी किसी ने? पर फिर लोग मेरी पीठ पीछे कहते, ‘इस के जैसा कोई नहीं’ और घटिया हंसी हसते।”

Prof Lall2मैं इत्मीनान से सुन रहा था – लगा था सीरियस्ली बात कर रहे हैं, पर फिर ज़ोर का ठहाका आया, और अब की बार मैं भी हंसी में बह गया। किसी मसनुई शिष्टाचार की ज़रूरत नहीं रह गयी थी। मैं समझ गया था – इस उम्र में वह ज़िंदगी के मज़े ले रहे थे।

प्रो एच के लाल – वोह जिन के जैसा कोई नहीं – नहीं रहे। जिसे आज देश के राजनेता और राजनीति, मुस्लमानों की ज़ुबान बताते हैं, वोह उर्दू ज़ुबाँ कहीं आप को मिले तो उस से कहना, ‘तुम्हारा एक आशिक़ जिस ने उम्र तुम्हारे सिजदे में गुज़ारी, इस जहाँ से चला गया है!’

लगभग आधी सदी चण्डीगढ़ में पंजाब भाषा विभाग का उर्दू आमोज़ बेसिक कोर्स पढ़ाया उन्होंने। उर्दू की ख़िदमत की, तालिबों से मुहब्बत का रिश्ता जोड़ा, और हर एक के पास यादों का खज़ाना छोड़ा। चंद हफ़्तों का कोर्स, और फिर सालों साल आप के पास प्रो एच के लाल (दो ‘एल’ वाले) के बारे सुनाने वाली बहुत सी बातें इकट्ठी हो जातीं।

शाम 5 बजे क्लास होती। कोई बीस मिनट पहले मैं उनके सेक्टर 46 वाले घर पहुँच जाता। हमेशा बिल्कुल तैयार मिलते। उनके गले में ऐनक लटकी होती डोरी के साथ, कान में सुनने की मशीन, और पैंट को थाम कर रखने वाले पट्टे उनके कंधो से हो कर पीछे क्रॉस बनाते। उनके घर से सेक्टर 32 के एस.डी. कॉलेज का सफ़र लम्बा करने के मैंने बहुत से तरीके सीखे। 10 मिनट की जगह 15 मिनट कर देता। कभी कभी 20। यही वोह पल थे जिन में मैंने उन्हें करीब से जाना।

15 मिनट घर से कॉलेज, 15-20 मिनट कॉलेज से घर।

सफर के दौरान कभी अपने बेटे की बात करते, उस की बहुत तारीफ़ें करते। कभी अपनी बहु की बातें करते। सारी बुराईयां ऐसी बताते जिनसे यही पता चलता कि वोह इनका कितना ध्यान रखती हैं। एक दिन मैंने कहा, ‘मुझे तो लगता है वोह आप की सेहत की चिंता करती हैं, इस लिए फलां चीज़ खाने को मना किया है।” बिगड़ गए। कहने लगे, “मुझे यहीं उतार दो।” मैंने माफ़ी मांगी, पर नहीं माने। मार्किट की पार्किंग में गाड़ी खड़ी करवा दी।

“तुम ने आज बहुत बुरी बात की है।” मैं कुछ नहीं बोला।
“अब तुम्हें मेरे लिए कुछ करना पड़ेगा।” मैं तो उनको मनाने के लिए कुछ भी करने को तैयार था।
“मेरे साथ गोल गप्पे खाओ।”

ऐसे ही नहीं दो ‘एल’ थे बन्दे के नाम में। उस जैसा कोई नहीं था।

बात बुझारत से शुरू करते। “उर्दू का एक बड़ा शायर हुआ है लभ्भू राम।” मैं हैरान हो जाता। उन्हें पता होता था अब क्या होगा। सुनाने लगते –

“तालिब-ए-ख़ैर न होंगे कभी इंसान से हम
नाम उस का है बशर उस में है शर दो-बटा-तीन”

Prof Lall1“जोश मलसियानी का क़लाम है। लभ्भू राम नाम था उनका।” पता चला जनाब ने अपनी पीएच.डी ही जोश मलसियानी पर की है। 1969 में उर्दू में एम.ए. की थी। जवानी पंजाब सरकार के सिंचाई विभाग में नौकरी करते गुज़ारी। चंडीगढ़ के सेक्टर 17 वाले इंडियन कॉफ़ी हॉउस के पास दफ़्तर था। ऊपर भाषा विभाग का दफ़्तर था। वोह लोग उर्दू का अध्यापक ढूंढ रहे थे। जनाब पास में ही मिल गए। पार्ट टाईम काम मिला उर्दू पढ़ाने का। 1976 में शुरू किया था, फिर कभी किसी ने छोड़ने को कहा नहीं। सो, उम्र भर नहीं छोड़ा। एक घंटा शाम को उर्दू की क्लास होती। और इस एक घंटे के लिए प्रो लाल ज़िंदगी जीते। हर रोज़ इस एक घंटे में वह पूरा जीवन जीते। 6 महीने कोर्स चलता। कोई विद्यार्थी 18 साल का, कोई 88 साल का। उन्हें रत्ती फ़र्क ना पड़ता।

“क्यों आते हैं आप से उर्दू सीखने?” मैंने एक बार पूछा।
“बेवक़ूफ़ हैं, तुम्हारी तरह।”
मैं चुप रहा। मुझे पता था एक्स्प्लेनेशन आ रही है।
“सारा दिन उर्दू बोलते हैं, कभी उसे हिन्दी कहते हैं, कभी पंजाबी, और मेरे पास उर्दू सीखने आ जाते हैं।”

फिर ठहाका!!! – मुझे पता था ठहाका आ रहा है।

हर क्लास को शेयर सुनाते – नहीं खेल ऐ ‘दाग़’ यारों से कह दो / कि आती है उर्दू ज़बाँ आते आते

कुछ को उर्दू शायरी से प्यार था, इस लिए उर्दू सीखने आते। कुछ के लिए नौकरी में सीखना मशरूत था। कुछ को बाएं से दाएं लिखी जाने वाली ज़ुबान का चस था। कुछ को लगता था उनके अंदर एक शायर रहता है, बस उर्दू आ जाये तो वोह बाहर आ जायेगा। कोर्स खत्म होने तक सब को प्रो लाल से मुहब्बत हो जाती थी। आशिकान-ए-लाल (दो ‘एल’ प्लीज़) वाला काफ़िला बढ़ता ही गया।

मैं 2018 में उनकी क्लास में था। देश में हालात तब्दील हो रहे थे, हो चुके थे। लोग उर्दू को मुस्लमानों की ज़ुबान बता रहे थे। कुछ ही समय पहले अख़बारों में ख़बर छपी थी – दिल्ली में मेट्रो में सफर कर रहे एक शख़्स को कुछ लोग इस लिए पाकिस्तानी बता रहे थे क्योंकि उस के हाथ में जशन-ए-रेख़्ता की एक छोटी सी किताब थी। किताब उर्दू में थी। मैंने प्रो लाल से पूछा आप को यह सब जान कर क्या महसूस होता है?

“उल्लू के पठ्ठे,” उन्होंने तपाक से जवाब दिया। “अपनी मासी को नहीं पहचानते, कल को माँ को ख़ाक पहचानेंगे?”

10 मिनट, 20 मिनट के सफर में टुकड़ों टुकड़ों में उनसे बात होती थी। कभी पूछा ही नहीं आप का जनम कहाँ हुआ।

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नहीं भूलेगा एस.डी. कॉलेज का वह कमरा, ब्लैकबोर्ड, और उनके जन्म दिवस पर इतने सारे केक की आमद वाला नेम… RIP Professor of Urdu. Rekhta owes you one.

कोर्स ख़त्म हुआ तो शाम की मुलाकातों के यह सिलसिले भी ख़त्म हो गए। कभी कभार मैं और मेरे वकील मित्र हरीश महला उनकी क्लास में पहुँच जाते। प्रो साहिब बहुत ख़लूस से नए शागिर्दों से मिलवाते। उनसे कहते, “यह मेरे ज़्यादा समझदार शागिर्द हैं, क्योंकि यह आप से दो साल पहले ही मेरे पास आ गए थे उर्दू सीखने।”

और फिर ज़ोर से ठहाका लगाते। क्लास भी हसती। मैं समझ गया था कि सारी क्लास को मालूम है ठहाका आने वाला है।

एक दिन मैंने उन्हें याद करवाया कि कैसे वोह बीच सड़क उतरने पर बज़िद हो गए थे, और सज़ा के तौर पर मुझे गोलगप्पे खाने पड़े थे। “बरख़ुरदार, मैं उर्दू सिखा रहा था। इस में नज़ाकत भी है, नफ़ासत भी, पर लताफ़त भी तो है।” ज़ुबान पर रेख़्ता, होठों पर लतीफ़ा। इस आदमी को जीना आता था।

कोविड ने उनकी क्लासों का सिलसिला तोड़ा, पर उन्होंने ऑनलाइन क्लास लेना सीख लिया। पर मज़ा उनको कॉलेज के उस कमरे में जा कर क्लास लेने में आता। थोड़ा वक़्त बीता तो मैं और हरीश जी कभी कभी फिर उनसे मिलने जाने लगे। एक ऐसी ही मिलनी में मैंने पूछा, “सर, आप का जनम कहाँ हुआ था?”

बोले, “पाकपटन – बाबा फरीद की धरती पर। चलो पाँव छूओ मेरे।”

ठहाका।

काफी समय से प्रो साहिब की तबियत नासाज़ चल रही थी। बढ़ते सालों के कारण उर्दू की शाम वाली एक घंटे की क्लास का छूट जाना दश्त-ए-ग़ुर्बत से कम नहीं था। उम्र भर उर्दू की ख़िदमत की थी। दश्त-ए-ग़ुर्बत है अलालत भी है तन्हाई भी / और उन सब पे फ़ुज़ूँ बादिया-पैमाई भी। वक़्त के बेइंतिहा ज़ाबित, पाबंद। शायद जान गए थे अब उस कमरे में ना जा पाएंगे। इसीलिए निकल लिए। 26 मार्च को।

एक ठहाका सुनना चाह रहा है मन पर अंदर ही अंदर कुछ मर्ग-रसीदा सा हो रखा है।

मन तो आप का भी चाह रहा होगा? इस लिए सुना देता हूँ।

एक दिन कार में बैठते ही पूछने लगे – “इसे क्या कहते हैं?” मैंने मुड़ कर देखा। अपनी पैंट के पट्टे खींच कर पूछ रहे थे।

“सर, सस्पेंडर्स कहते हैं इन्हें। गैल्लसिस भी कहते हैं लोग।”

“उर्दू में क्या कहते हैं?”

“पता नहीं सर।” “नहीं पता?” “नहीं सर।”

उर्दू में इन्हें कहते हैं – “ओये कित्थे ने टुट्ट पैने मेरे नीले वाले?”

ठहाका सुनाई दिया? उन्होंने लगाया था।

प्रो लाल, आप तीन ‘एल’ भी लगा लेते तो वह भी जायज़ था। वोह सब, जिन्होंने आप के साथ एक घंटे में एक जीवन जी कर देखा है, इस बात की गवाही देंगे – आप जैसा कभी कोई नहीं होगा।

बहिश्त में आज ठहाके की आवाज़ आये तो फ़रिश्ते समझ जाएंगे – उर्दू आमोज़ बेसिक कोर्स की क्लास चालू हो गयी है। Pt Logo

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